भ्रमर गीत - ऊधौ मन न भए दस बीस | व्याख्या, अर्थ और महत्व
#Introduction
भ्रमर गीत, भक्ति साहित्य की एक अनुपम कृति, हिंदी साहित्य के शिरोमणि कवि सूरदास द्वारा रचित सूरसागर
का एक महत्वपूर्ण भाग है। यह उद्धव और गोपियों के बीच हुए संवादों का सार है, जिसमें गोपियों की कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम और भक्ति का वर्णन है। भ्रमर गीत में गोपियों द्वारा उद्धव को दिए गए उपदेश, उनकी विरह वेदना, और कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम की गहरी अभिव्यक्ति है। इस गीत में निहित दार्शनिक और भावनात्मक गहराई इसे साहित्य में एक विशेष स्थान दिलाती है। सूरदास ने भ्रमर गीत के माध्यम से निर्गुण ब्रह्म की उपासना के स्थान पर सगुण कृष्ण की भक्ति को श्रेष्ठ सिद्ध किया है। भ्रमर गीत न केवल एक साहित्यिक रचना है, बल्कि यह भक्ति और प्रेम के दर्शन का भी एक महत्वपूर्ण स्रोत है। इसमें गोपियों की विरह-वेदना का मार्मिक चित्रण है, जो पाठकों के हृदय को स्पर्श करता है। भ्रमर गीत में प्रेम की गहराई, भक्ति की शक्ति, और विरह की पीड़ा का सुंदर समन्वय है। यह गीत कृष्ण-भक्ति साहित्य में एक मील का पत्थर है और आज भी पाठकों को अपनी भावनात्मक गहराई और दार्शनिक ऊँचाई से प्रेरित करता है। भ्रमर गीत में गोपियों की कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति, प्रेम और विरह की तीव्रता का वर्णन है, जो पाठकों को भक्ति और प्रेम के गहरे अर्थों से परिचित कराता है। इस गीत में निहित भक्ति और प्रेम की भावनाएँ आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं और उन्हें आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति कराती हैं।
ऊधौ, मन न भए दस बीस। एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को आराधै ईस।। इंद्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस। आसा लागि रहत तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस। तुम तो सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस। सूर हमारे नंद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस।।
शब्दार्थ
- ऊधौ - उद्धव, कृष्ण के मित्र और ज्ञानी भक्त
- मन - हृदय, चित्त
- भए - हुए
- दस बीस - दस-बीस (अनेक)
- हुतो - था
- गयौ - गया
- स्याम - कृष्ण
- संग - साथ
- को - कौन
- आराधै - आराधना करे, पूजा करे
- ईस - ईश्वर
- इंद्री - इन्द्रियाँ
- सिथिल - शिथिल, कमजोर
- केसव - कृष्ण
- बिनु - बिना
- ज्यौं - जैसे
- देही - शरीर
- सीस - सिर
- आसा - आशा, उम्मीद
- लागि रहत - लगी रहती है
- तन - शरीर
- स्वासा - श्वास
- जीवहिं - जीते हैं
- कोटि - करोड़ों
- बरीस - वर्ष
- सखा - मित्र
- स्याम सुंदर - सुंदर कृष्ण
- सकल - सभी
- जोग - योग
- ईस - स्वामी
- सूर - सूरदास
- हमारे - हमारे
- नंद-नंदन - नंद के पुत्र (कृष्ण)
- और - अन्य
- नहीं - नहीं
- जगदीस - जगत के स्वामी, ईश्वर
भावार्थ
इस पद में गोपियाँ उद्धव से अपनी विरह-वेदना व्यक्त करते हुए कहती हैं, “हे उद्धव, हमारे पास दस-बीस मन नहीं हैं। हमारे पास तो एक ही मन था, जो कृष्ण के साथ चला गया। अब हम किस ईश्वर की आराधना करें?” गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि उनकी इन्द्रियाँ कृष्ण के बिना शिथिल हो गई हैं, जैसे शरीर बिना सिर के बेकार होता है। वे कृष्ण के विरह में व्याकुल हैं और उनकी दशा ऐसी हो गई है जैसे बिना सिर का शरीर। गोपियाँ कहती हैं कि वे करोड़ों वर्षों तक जीवित रह सकती हैं, क्योंकि उनके शरीर में श्वासें चल रही हैं और उन्हें कृष्ण के वापस आने की आशा है। गोपियाँ उद्धव को संबोधित करते हुए कहती हैं कि वे कृष्ण के सुंदर मित्र हैं और सभी प्रकार के योग के स्वामी हैं। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ कहती हैं कि उनके लिए नंद के पुत्र कृष्ण के बिना कोई और जगदीश्वर नहीं है। उनके लिए कृष्ण ही सबकुछ हैं और वे किसी और देवता की उपासना नहीं कर सकतीं। गोपियों का यह कथन कृष्ण के प्रति उनकी अनन्य भक्ति और प्रेम को दर्शाता है। गोपियाँ कृष्ण के प्रेम में इतनी डूबी हुई हैं कि उन्हें कृष्ण के बिना किसी और की उपासना करने की कल्पना भी नहीं है। गोपियों का यह पद कृष्ण-भक्ति साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है और यह कृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाता है। गोपियाँ उद्धव को बताती हैं कि वे केवल कृष्ण के प्रेम में ही आनंदित होती हैं और उन्हें किसी और चीज की आवश्यकता नहीं है। गोपियों का यह पद कृष्ण के प्रति उनके अटूट विश्वास और समर्पण का प्रतीक है।
भ्रमर गीत के इस पद में, गोपियाँ उद्धव के सामने अपनी प्रेम की अनूठी और अनन्य भावना को व्यक्त करती हैं। वे कहती हैं कि उनके पास दस-बीस मन नहीं हैं, बल्कि केवल एक ही मन था, जो कृष्ण के साथ चला गया है। यहाँ, मन का तात्पर्य हृदय और भावनाओं से है। गोपियों का कहना है कि उनका हृदय पूरी तरह से कृष्ण के प्रेम में डूबा हुआ है और अब उनके पास किसी और के लिए कोई स्थान नहीं है। यह प्रेम की एकाग्रता और अनन्यता को दर्शाता है। गोपियाँ उद्धव से पूछती हैं कि जब उनका एकमात्र मन कृष्ण के साथ चला गया, तो वे किस ईश्वर की आराधना करें। यह प्रश्न उनकी कृष्ण के प्रति अटूट भक्ति को दर्शाता है। उनके लिए, कृष्ण ही एकमात्र ईश्वर हैं और वे किसी और की उपासना नहीं कर सकतीं। गोपियाँ कहती हैं कि कृष्ण के बिना उनकी इन्द्रियाँ शिथिल हो गई हैं, जैसे शरीर बिना सिर के बेकार होता है। यहाँ, इन्द्रियों का तात्पर्य उनकी शारीरिक और मानसिक शक्तियों से है। गोपियाँ कृष्ण के विरह में इतनी व्याकुल हैं कि उनकी सभी शक्तियाँ क्षीण हो गई हैं। यह उनके प्रेम की तीव्रता और विरह की पीड़ा को दर्शाता है। गोपियाँ आशा में जीवित हैं कि कृष्ण एक दिन लौटेंगे। वे कहती हैं कि वे करोड़ों वर्षों तक जीवित रह सकती हैं, क्योंकि उनके शरीर में श्वासें चल रही हैं और उन्हें कृष्ण के वापस आने की उम्मीद है। यह आशा उनके प्रेम की गहराई और उनके अटूट विश्वास को दर्शाती है। गोपियाँ उद्धव को संबोधित करते हुए कहती हैं कि वे कृष्ण के मित्र हैं और योग के स्वामी हैं। वे उद्धव से कृष्ण के बारे में बात करने और उनके प्रेम को समझने का आग्रह करती हैं। गोपियाँ कहती हैं कि उनके लिए नंद के पुत्र कृष्ण के बिना कोई और जगदीश्वर नहीं है। उनके लिए, कृष्ण ही सबकुछ हैं और वे किसी और देवता की उपासना नहीं कर सकतीं। यह कथन कृष्ण के प्रति उनकी अनन्य भक्ति और प्रेम को दर्शाता है। सूरदास जी इस पद के माध्यम से गोपियों की कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति और प्रेम को दर्शाते हैं। गोपियों का प्रेम निस्वार्थ और अटूट है। वे कृष्ण के बिना अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकतीं। इस पद में, सूरदास ने प्रेम की गहराई, भक्ति की शक्ति और विरह की पीड़ा का सुंदर चित्रण किया है। भ्रमर गीत का यह पद भक्ति साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है और यह कृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाता है।
भ्रमर गीत हिंदी साहित्य में एक अनमोल रत्न है, और इस पद का विशेष महत्व है। यह पद गोपियों के कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम और भक्ति को दर्शाता है। यह प्रेम इतना गहरा है कि गोपियाँ कृष्ण के बिना अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकतीं। यह पद विरह की पीड़ा और प्रेम की तीव्रता को मार्मिक ढंग से व्यक्त करता है। गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि उनका मन केवल कृष्ण के लिए है और वे किसी और की उपासना नहीं कर सकतीं। यह उनके एकनिष्ठ प्रेम का प्रमाण है। इस पद में, गोपियाँ उद्धव के ज्ञान और योग के उपदेशों को अस्वीकार करती हैं और अपने प्रेम और भक्ति के मार्ग पर अडिग रहती हैं। यह प्रेम के मार्ग की श्रेष्ठता को दर्शाता है। सूरदास ने इस पद में सरल और सहज भाषा का प्रयोग किया है, जो पाठकों के हृदय को छू जाती है। यह पद भावनाओं और विचारों को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करता है। यह पद कृष्ण-भक्ति साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है और यह प्रेम, भक्ति और विरह के विषयों पर गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। भ्रमर गीत का यह पद भक्ति और प्रेम के दर्शन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। यह पाठकों को प्रेम की गहराई और भक्ति की शक्ति का अनुभव कराता है। इस पद में गोपियों की विरह-वेदना का मार्मिक चित्रण है, जो पाठकों के हृदय को करुणा से भर देता है। यह पद प्रेम की मानवीय भावनाओं को समझने में मदद करता है।
भ्रमर गीत का यह पद सूरदास की काव्य प्रतिभा का उत्कृष्ट उदाहरण है। इसमें गोपियों की विरह-वेदना, कृष्ण के प्रति उनका अनन्य प्रेम, और भक्ति की गहराई का सुंदर चित्रण है। यह पद हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है और यह आज भी पाठकों को प्रेरित करता है। भ्रमर गीत का यह पद भक्ति और प्रेम के दर्शन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, जो पाठकों को प्रेम की गहराई और भक्ति की शक्ति का अनुभव कराता है। इस पद में गोपियों की विरह-वेदना का मार्मिक चित्रण है, जो पाठकों के हृदय को करुणा से भर देता है। यह पद प्रेम की मानवीय भावनाओं को समझने में मदद करता है और हमें प्रेम के महत्व को समझाता है। भ्रमर गीत का यह पद कृष्ण-भक्ति साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है और यह प्रेम, भक्ति और विरह के विषयों पर गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। यह पद हिंदी साहित्य की एक अनमोल धरोहर है और यह हमेशा पाठकों को प्रेरित करता रहेगा। भ्रमर गीत का यह पद सूरदास की काव्य प्रतिभा का अद्भुत उदाहरण है।